जाने क्या है गोत्र का रहस्य एवं महत्त्व


दोस्तों, आपके मन में भी सवाल आता होगा कि आखिर गोत्र क्या है? यदि आपको अपना गोत्र नहीं पता तो इसे कैसे पता करें? आज हम अपने ब्लॉग में इसी बात की चर्चा करेंगे कि गोत्र की उत्पत्ति कहां से हुई और अपना गोत्र कैसे जाने।


दोस्तों मानव एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में रहते हुए उसके द्वारा बनाए हुए नियमों पर चलना होता है। गोत्र भी उसी प्राचीन समाज के द्वारा बनाया गया एक रीति रिवाज है। जो यह निर्धारित करता है कि एक व्यक्ति किस पूर्वज की संतान है।

एक वंश के सभी वंशज मूल रूप से किसी एक पूर्वज से जुड़े हुए हैं। अब सवाल आता है कि आखिर गोत्र क्या है? 

ऐसी मान्यता है कि हम लोग ऋषि मुनियों की संतान है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार मुख्य रूप से सप्त ऋषि के नाम के पर 7 तरह के गोत्र का चलन था।
पहला अत्री, दूसरा गौतम, तीसरा भारद्वाज, चौथा भृगु, पांचवा कश्यप, छठा वशिष्ठ और सातवां विश्वामित्र।

लेकिन समय के साथ ही यह गोत्र बढ़ती गए और आलू की संख्या लगभग 115 हो गई है एक समान गोत्र के लोग आगे चलकर किसी एक पूर्वज की संतान होने के कारण भाई-बहन समझाइए जाने लगे लिए उनका विवाह आप समझा जाने लगा समाज की दृष्टि से एक ही गोत्र की स्त्री पुरुष भाई बहन समझे जाने लगे।
एक ही गोत्र में शादी ना करने का एक कारण यह भी माना जाता था कि ऐसा करने से संतान में अनुवांशिक दोस्त आने का दोस्त आने का खतरा माना जाता था
प्याज का मेडिकल साइंस कहता है

कानून की दृष्टि गोत्र वर्णन मैं शादी करने का कोई बंधन रखा गया है।

माना जाता है कि गोत्र पहले आए वरना का वर्ण का चलन बाद में हुआ।

मनुष्य के कर्मों के आधार पर उन्हें चार वर्णों में बांटा गया है ब्राह्मण छत्रिय वैश्य शूद्र
इन सभी वर्णों को प्रमुख जातियां कहा गया है


संस्कृत में यह शब्द नहीं मिलता है। वहाँ गोष्ठ शब्द तो मिलता है जो कि गोत्र का समानार्थक है।
गोत्र क्या होता है :- गोत्र जिसका अर्थ वंश भी है। यह एक ऋषि के माध्यम से शुरू होता है और हमें
हमारे पूर्वजों और हमारे कर्तव्यों के बारे में बताता है ।

आगे चलकर यही गोत्र वंश परिचय के रूप में समाज में फैल गया.. एक समान गोत्र वाले एक ही ऋषि परंपरा के होने के कारण भाई-बहिन समझे जाने लगे… जो आज भी बदस्तूर जारी है।

प्रारंभ मैं सात गोत्र थे कालांतर मैं दुसरे ऋषियों के सानिध्य के कारन अन्य गोत्र अस्तित्व मैं आये !!
जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत ही यही रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिन्दुओं में गोत्र होता है जो किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। गोत्र कोबहिर्विवाही समूह माना जाता है अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध न हो अर्थात एक गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते पर दूसरे गोत्र में विवाह कर सकते, जबकि जाति एक अन्तर्विवाही समूह है यानी एक जाति के लोग समूह से बाहर विवाह संबंध नहीं कर सकते।

गोत्र मातृवंशीय भी हो सकता है और पितृवंशीय भी। ज़रूरी नहीं कि गोत्र किसी आदिपुरुष के नाम से चले। जनजातियों में विशिष्ट चिह्नों से भी गोत्र तय होते हैं जो वनस्पतियों से लेकर पशु-पक्षी तक हो सकते हैं। शेर, मगर, सूर्य, मछली, पीपल, बबूल आदि इसमें शामिल हैं। यह परम्परा आर्यों में भी रही है। हालांकि गोत्र प्रणाली काफी जटिल है पर उसे समझने के लिए ये मिसालें सहायक हो सकती हैं।देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लोकायत में लिखते हैं कि कोई ब्राह्मणकश्यप गोत्र का है और यह नाम कछुए अथवा कच्छप से बना है।

इसका अर्थ यह हुआ कि कश्यप गोत्र के सभी सदस्य एक ही मूल पूर्वज के वंशज हैं जो कश्यप था। इस गोत्र के ब्राह्मण के लिए दो बातें निषिद्ध हैं, एक तो उसे कभी कछुए का मांस नहीं खाना चाहिए और दूसरे उसे कश्यप गोत्र में विवाह नहीं करना चाहिए। आज समाज में विवाह के नाम पर आनर किलिंग का प्रचलन बढ़ रहा है उसके मूल में गोत्र संबंधी यही बहिर्विवाह संबंधी धारणा है।

मानव जीवन में जाति की तरह गोत्रों का बहुत महत्त्व है ,यह हमारे पूर्वजों का याद दिलाता है साथ ही हमारे संस्कार एवं कर्तव्यों को याद दिलाता रहता है । इससे व्यक्ति के वंशावली की पहचान होती है एवं इससे हर व्यक्ति अपने को गौरवान्वित महसूस करता है । हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए है । ये किसी न किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ॠषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए है । इनकी उत्‍पत्ति कैसे हुई इस सम्‍बंध में धार्मिक ग्रन्‍थों का आश्रय लेना पड़ेगा ।

धार्मिक आधार- महाभारत के शान्‍तिपर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे-
1-अंगिरा।
2- कश्‍यप।
3- वशिष्‍ठ
4- भृगु ।

बाद में आठ हो गए जब जमदन्गि, अत्रि, विश्‍वामित्र तथा अगस्‍त्‍य के नाम जुड़ गए । गोत्रों की प्रमुखता उस काल में बढी जब जाति व्‍यवस्‍था कठोर हो गई और लोगों को यह विश्‍वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे ।

उस काल में ब्राह्मण ही अपनी उत्‍पत्ति उन ऋषियों से होने का दावा कर सकते थे । इस प्रकार किसी ब्राह्मण का अपना कोई परिवार, वंश या गोत्र नहीं होता था ।

एक क्षत्रिय या वैश्‍य यज्ञ के समय अपने पुरोहित के गोत्र के नाम का उच्‍चारण करता था । अत: सभी स्‍वर्ण जातियों के गोत्रों के नाम पुरोहितों तथा ब्राह्मणों के गोत्रों के नाम से प्रचलित हुए ।

शूद्रों को छोड़कर अन्‍य सभी जातियों जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे । गोत्रों की समानता का यही मुख्‍य कारण है ।

शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परम्‍परागत अनन्‍तकाल त‍क सेवा करते रहे उन्‍होंने भी उन्‍हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए । इसी कारण विभिन्‍न आर्य और अन्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है। इसी कारण विभिन्‍न आर्य और अनार्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है । भाटी, पंवार, परिहार, सोलंकी, सिसोदिया तथा चौहान राजपूतों, मालियों, सरगरों तथा मेघवालों आदि कई जातियों में मिलना सामान्‍य बात है । सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढ़ि सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए । राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले सूद तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं । लम्‍बे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई । रैगरों और जाटवों के गोत्रों में समानता का यही कारण है । गोत्रों की समानता के आधार पर रैगरों की उत्‍पत्ति जाटवों से मान लेना गलत है।

मनु स्मृति के अनुसार कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था बनाई गई थी । मनुष्यों में कोई छोटा या बड़ा नही होता । शरीर के सभी अंगों का अपनी-२ जगह महत्व है । वैसे तो संसार के सभी धर्म, सम्प्रदायों में जाति-पाति का थोड़ा बहुत भेद अवश्य मिलेगा किन्तु वह भेद अहंकार, घृणा और एक-दूसरे को नीचा दिखाने कि भावना से हुआ, क्योंकि धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सभी मनुष्य समान हैं ।

जाति व्यवस्था को मजबूत बनाया गया। जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे कार्य जाति में ही सम्पन्न होने का रिवाज बन गया । लोगों ने अपनी जाति के बाहर सोचना ही बन्द कर दिया । शूद्रों को छोड़कर अन्‍य सभी जातियों जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे । गोत्रों की समानता का यही मुख्‍य कारण है । शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परम्‍परागत अनन्‍तकाल त‍क सेवा करते रहे उन्‍होंने भी उन्‍हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए । इसी कारण विभिन्‍न आर्य और अन्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है ।

चौहान राजपूतों, मालियों, आदि कई जातियों में मिलना सामान्‍य बात है । सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढ़ि सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए ।

राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले शुद्र तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों एवं चमड़े का कार्य करनेवाले चर्मकार आदि व्यक्तियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं । लम्‍बे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई ।

ब्राह्मणों के विवाह में गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है। पुराणों व स्मृति ग्रंथों में बताया गया है कि यदि कोई कन्या संगौत्र हो, किंतु सप्रवर न हो अथवा सप्रवर हो किंतु संगौत्र न हो, तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जाना चाहिए।

विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्ति की संतान ‘गौत्र” कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। आगे चलकर गौत्र का संबंध धार्मिक परंपरा से जुड़ गया और विवाह करते समय इसका उपयोग किया जाने लगा।

भारत वैदिक काल से ही कृषि प्रधान देश रहा है.. और कृषि मैं गाय का बड़ा महत्त्व रहा है.. वैदिक काल से ही आर्य ऋषियों के निकट रह कर पठान, पठान, इज्या, शासन, कृषि, प्रशासन, गोरक्षा और वाणिज्य के कार्यों द्वारा अपनी जीविका चलाते थे..

और चूँकि भारत की जलवायु कृषि के अनुकूल थी, इसी लिए आर्य जन कृषि विज्ञानं में पारंगत थे, और कृषि मैं गाय को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया.. वह भारतीय कृषि और जीवन की धुरी बन चुकी थी… गोऊ माता परिवार की सम्रधि का पर्याय थी.. गौपालन एक सुनियोजित कर्म था, यद्यपि गायें पारिवारिक संपत्ति होती थी पर उनकी देख रेख, संरक्षण ऋषियों की देख-रेख मैं सामुदायिक परीके से होता था.. अपनी गायों की रक्षा मैं कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे … इस प्रकार गौपालन के प्रवर्तक ऋषि थे..

गौपालन करनेवाले अनेक वंशो के अलग-अलग कुल सुविधानुसार अलग-अलग ऋषियों की छत्र छाया मैं रहते थे, लोग ऋषि के आश्रम के पास ग्राम बना कर गौपालन, कृषि और वाणिज्यिक कार्य करते थे.. इस प्रकार जो लोग किसी ऋषि के पास रह कर गौपालन करते थे वे उसी ऋषि के नाम के गोत्र के पहचाने जाने लगे..

जैसे कश्यप ऋषि के साथ रहने वाला रामचंद्र अपना परिचय इस प्रकार देता था:
“कश्यप गोत्रोत्पन्नोहम रामचंद्रसत्वामभीदाये “”
मैं कश्यप गोत्र मैं पैदा हुए रामचंद्र आपको प्रणाम करता हूँ…
जैसे कश्यप ऋषि के साथ रहने वाले सभी वर्णों के लोग कश्यप गोत्र के हो गए..

ऋषियों की संख्या लाख-करोड़ होने के कारण गौत्रों की संख्या भी लाख-करोड़ मानी जाती है, परंतु सामान्यत: आठ ऋषियों के नाम पर मूल आठ गौत्र ऋषि माने जाते हैं, जिनके वंश के पुरुषों के नाम पर अन्य गौत्र बनाए गए। ‘महाभारत” के शांतिपर्व (297/17-18) में मूल चार गौत्र बताए गए हैं- अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु, जबकि जैन ग्रंथों में 7 गौत्रों का उल्लेख है- कश्यप, गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मंडव्य और वशिष्ठ। इनमें हर एक के अलग-अलग भेद बताए गए हैं- जैसे कौशिक-कौशिक कात्यायन, दर्भ कात्यायन, वल्कलिन, पाक्षिण, लोधाक्ष, लोहितायन (दिव्यावदन-331-12,14) विवाह निश्चित करते समय गौत्र के साथ-साथ प्रवर का भी ख्याल रखना जरूरी है। प्रवर भी प्राचीन ऋषियों के नाम है तथापि अंतर यह है कि गौत्र का संबंध रक्त से है, जबकि प्रवर से आध्यात्मिक संबंध है। प्रवर की गणना गौत्रों के अंतर्गत की जाने से जाति से संगौत्र बहिर्विवाहकी धारणा प्रवरों के लिए भी लागू होने लगी।

वर-वधू का एक वर्ष होते हुए भी उनके भिन्न-भिन्न गौत्र और प्रवर होना आवश्यक है (मनुस्मृति- 3/5)। मत्स्यपुराण (4/2) में ब्राह्मण के साथ संगौत्रीय शतरूपा के विवाह पर आश्चर्य और खेद प्रकट किया गया है। गौतमधर्म सूत्र (4/2) में भी असमान प्रवर विवाह का निर्देश दिया गया है। (असमान प्रवरैर्विगत) आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है- ‘संगौत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत्” (समान गौत्र के पुरुष को कन्या नहीं देना चाहिए)।

गोत्रों का महत्व :- जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है ।
1. गोत्रों से व्‍यक्ति और वंश की पहचान होती है ।
2. गोत्रों से व्‍यक्ति के रिश्‍तों की पहचान होती है ।
3. रिश्‍ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है ।
4. गोत्रों से निकटता स्‍थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है ।
5. गोत्रों के इतिहास से व्‍यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है ।

गोत्रों की उत्‍पत्ति- रैगर जाति के गोत्रों की उत्‍पत्ति एक समय और एक स्‍थान पर नहीं हुई है । समय गुजरने के साथ गोत्रों में वृद्धि हुई है । बही भाट रैगरों के 356 गोत्र बताते है मगर वास्‍तव में 400 से अधिक गोत्र है । रैगरों के गोत्रों की उत्‍पत्ति कब और कैसे हुई यह बता पाना बहुत ही कठिन है । एक समय और एक स्‍थान पर गोत्रों की उत्‍पत्ति नहीं हुई है । हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए है । ये किसी न किसी गाँव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ॠषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए है ।

समाजशास्त्रीय आधार- समाजशास्त्रियों ने सभी जातियों के गोत्रों की उत्‍पत्ति के निम्‍न आधार बताए हैं-
1. परिवार के मूल निवास स्‍थान के नाम से गोत्रों का नामकरण हुआ ।
2. कबीला के मुखिया के नाम से गोत्र बने ।
3. परिवार के इष्‍ट देव या देवी के नाम से गोत्र प्रचलित हुए ।
4. कबिलों के महत्‍वपूर्ण वृक्ष या पशु-पक्षियों के नाम से गोत्र बने ।
समाजशास्त्रियों द्वारा उपरोक्‍त बताए गए गोत्रों की उत्‍पत्ति के आधार बहुत ही महत्‍वपूर्ण है ।


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