शिव की रहस्यमई वेशभूषा किस बात का संकेत देती है- हर हिंदू पढे
भगवान शिव की वेशभूषा किस बात का देती है संकेत
Significance of Lord Shiva Dress
महादेव का अर्थ है देवताओं का देवता। ध्यानपूर्वक देखने पर, भगवान शिव जो सबके दुःखों को हरने वाले हैं उनकी वेशभूषा ब्रह्मा, विष्णु जैसे अन्य देवताओं की वेशभूषा से बहुत अजीब और रहस्यमय लगती है।
उनका शरीर गले में सांप, डमरु, त्रिशूल, भस्म और तपस्वियों की तरह है। आपको शायद यह विचार आया होगा कि आखिर भगवान शिव की वेशभूषा ऐसी क्यों है? यह वास्तव में किस बात का संकेत देता है? आइए इस प्रश्न का जवाब देखें।
शिव के मस्तक पर चंद्रमा
Shiva की वेशभूषा माथे से शुरू होती है। शिव का माथा मन का प्रतीक है। शिव का चन्द्रमा मन पर नियंत्रण का प्रतीक है।चंद्रमा शिव के सभी त्योहारों का आधार है। शिवरात्रि, महाशिवरात्रि आदि त्योहार चंद्रमा के स्थान पर आधारित हैं।भगवान शिव का त्रिशूल
भगवान शिव का त्रिशूल एक घातक और अचूक हथियार था। इसके सामने कोई भी बल ठहर नहीं सकता।शिव का त्रिशूल भी तीन प्रकार के कष्टों (दैनिक, दैविक और भौतिक) का संकेत है। यह भी माना जाता है कि यह तीन कालों (वर्तमान, भूत और भविष्य) का प्रतिनिधित्व करता है।
शिव के गले मे सांप क्यों है
कुंडलिनी शक्ति का प्रतीक नाग या सर्प है।Shiva नागवंशियों से बहुत प्यार करता था। शिव के क्षेत्र में रहने वाले सभी नागों का घर हिमालय था। इन नागवंशियों का गढ़ कश्मीर का अनंतनाग था।नाग जाति का हर सदस्य शैव धर्म का अनुसरण करता था। नागपंचमी पर नागों को पूजा जाता है।प्रारंभ में, नागों में पांच कुल थे। शेषनाग (अनंत), वासुकि, तक्षक, पिंगला और कर्कोटक उनके नाम हैं।नाग वंशावली में, "शेषनाग" नागों का पहला राजा है। शेषनाग को ही "अनंत" भी कहा जाता है। ये देवता श्रीकृष्ण के सेवक थे।शिव जी का डमरू क्या बताता है
भगवान शिव का डमरू नाद का प्रतीक है। नाद अर्थात ऐसी ध्वनि, जो ब्रह्मांड में निरंतर जारी है जिसे 'ॐ' कहा जाता है। नाद पर ध्यान की एकाग्रता से धीरे-धीरे समाधि लगने लगती है। डमरू इसी नाद-साधना का प्रतीक है। इसकी एक अलग तरह की आवाज अनायास ही लोगों का ध्यान आकर्षित करती है।भगवान शिव को संगीत का जनक भी माना जाता है। उनके पहले कोई नाचना, गाना और बजाना नहीं जानता था।भगवान शिव दो तरह से नृत्य करते हैं- एक तांडव जिसमें उनके पास डमरू नहीं होता और जब वे डमरू बजाते हैं तो आनंद पैदा होता है।शिव का वाहन नंदी बैल
नंदी भगवान शिव का वाहन है। वे हमेशा शिव के साथ रहते हैं। बैल संकेत है धर्म का। मनुस्मृति के अनुसार 'वृषो हि भगवान धर्म:'। वेद ने धर्म को 4 पैरों वाला प्राणी कहा है।
उसके 4 पैर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक हैं। महादेव इस 4 पैर वाले वृषभ की सवारी करते हैं यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनके अधीन हैं।शिव जी की जटाएं क्या दर्शाती हैं
शिव अंतरिक्ष के देवता हैं। उनका नाम व्योमकेश है अत:आकाश उनकी जटास्वरूप है। जटाएं वायुमंडल की प्रतीक हैं।ॐ गंगा
गंगा को जटा में धारण करने के कारण ही शिव को जल चढ़ाए जाने की प्रथा शुरू हुई। जब स्वर्ग से गंगा को धरती पर उतारने का उपक्रम हुआ तो यह भी सवाल उठा कि गंगा के इस अपार वेग से धरती में विशालकाय छिद्र हो सकता है, तब गंगा पाताल में समा जाएगी।
ऐसे में इस समाधान के लिए भगवान शिव ने गंगा को सर्वप्रथम अपनी जटा में विराजमान किया और फिर उसे धरती पर उतारा। गंगोत्री तीर्थ इसी घटना का गवाह है।ॐ भभूत या भस्म
शिव अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। भस्म जगत की निस्सारता का बोध कराती है। भस्म आकर्षण, मोह आदि से मुक्ति का प्रतीक भी है। देश में एकमात्र जगह उज्जैन के महाकाल मंदिर में शिव की भस्म आरती होती है जिसमें श्मशान की भस्म का इस्तेमाल किया जाता है।
यज्ञ की भस्म में वैसे कई आयुर्वेदिक गुण होते हैं। प्रलयकाल में समस्त जगत का विनाश हो जाता है, तब केवल भस्म (राख) ही शेष रहती है। यही दशा शरीर की भी होती हैॐ तीन नेत्र
शिव को 'त्रिलोचन' कहते हैं यानी उनकी तीन आंखें हैं। प्रत्येक मनुष्य की भौहों के बीच तीसरा नेत्र रहता है। शिव का तीसरा नेत्र हमेशा जाग्रत रहता है, लेकिन बंद। यदि आप अपनी आंखें बंद करेंगे तो आपको भी इस नेत्र का अहसास होगा।
संसार और संन्यास : शिव का यह नेत्र आधा खुला और आधा बंद है। यह इसी बात का प्रतीक है कि व्यक्ति ध्यान-साधना या संन्यास में रहकर भी संसार की जिम्मेदारियों को निभा सकता हैत्र्यंबकेश्वर : त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के संबंध में मान्यता है कि तीन नेत्रों वाले शिवशंभू के यहां विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्र) के ईश्वर कहा जाता है।ॐ हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म
शिव अपनी देह पर हस्ति चर्म और व्याघ्र चर्म को धारण करते हैं। हस्ती अर्थात हाथी और व्याघ्र अर्थात शेर। हस्ती अभिमान का और व्याघ्र हिंसा का प्रतीक है अत: शिवजी ने अहंकार और हिंसा दोनों को दबा रखा है।ॐ शिव का धनुष पिनाक
शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवराज को सौंप दिया गया था।उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवराज को धनुष दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवराज थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।शिव का चक्र
चक्र को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र का नाम भवरेंदु था.यह बहुत कम ही लोग जानते हैं कि सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों के अनुसार इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।शिव जी के माथे का त्रिपुंड तिलक
माथे पर भगवान शिव त्रिपुंड तिलक लगाते हैं। यह तीन लंबी धारियों वाला तिलक होता है। यह त्रिलोक्य और त्रिगुण का प्रतीक है। यह सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का प्रतीक भी है। यह त्रिपुंड सफेद चंदन का या भस्म का होता है।त्रिपुंड दो प्रकार का होता है- पहला तीन धारियों के बीच लाल रंग का एक बिंदु होता है। यह बिंदु शक्ति का प्रतीक होता है। आम इंसान को इस तरह का त्रिपुंड नहीं लगाना चाहिए। दूसरा होता है सिर्फ तीन धारियों वाला तिलक या त्रिपुंड। इससे मन एकाग्र होता है।
शिव के कान में कुंडल
हिन्दुओं में एक कर्ण छेदन संस्कार है। शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने की प्रथा है। कर्ण छिदवाने से कई प्रकार के रोगों से तो बचा जा ही सकता है साथ ही इससे मन भी एकाग्र रहता है। मान्यता अनुसार इससे वीर्य शक्ति भी बढ़ती है।भगवान शिव का रुद्राक्ष
माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं से हुई थी। हिंदुओ के धार्मिक ग्रंथानुसार 21 मुख तक के रुद्राक्ष होने के प्रमाण हैं, परंतु वर्तमान में 14 मुखी के पश्चात सभी रुद्राक्ष अप्राप्य हैं। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है तथा रक्त प्रवाह भी संतुलित रहता है।
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